म.प्र. भाजपा को "ग्वालियर" की आवश्यकता

प्रवेश सिंह भदौरिया। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा अभी भी "सरकार" की तरह काम कर रही है जबकि कांग्रेस बार-बार उन्हें यह अहसास दिला रही है कि सत्ता परिवर्तन हो चुका है।इसका एक मुख्य कारण भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के करीबी नेताओं द्वारा कार्यकर्ताओं को "कभी भी" सत्ता बदलने का झूठा आश्वासन देना है। हालांकि प्रदेश से जुड़े कुछ राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने जनता के फैसलों का सम्मान किया है और नयी सरकार पर टीका-टिप्पणी के साथ ही उनके मातहत काम करने वाले अधिकारियों को भी दिशानिर्देश देने बंद कर दिये हैं।

लोकसभा चुनाव नजदीक हैं किंतु मध्यप्रदेश में जिस तरह से भाजपा काम कर रही है उससे लग रहा है विधानसभा का परिणाम फिर से दोहराया जा सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री अब एक साधारण विधायक होते हुए भी "नेता प्रतिपक्ष" की भूमिका में हैं जबकि "नेता प्रतिपक्ष" अभी भी शीर्ष नेतृत्व के निर्देशों का इंतजार करते दिख रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री जी ने जिस तरह से सारे सर्वे को धता बताकर स्वयं को सबसे बड़ा "सर्वेयर" घोषित किया था उसने ना केवल उनके अतिआत्मविश्वास को धक्का दिया होगा बल्कि ये भी समझाया होगा कि भाजपा "व्यक्ति विशेष" की पार्टी नहीं है। हालांकि राष्ट्रीय अध्यक्ष इस बात को अभी तक नहीं समझ रहे हैं।

कार्यकर्ताओं को भी समझ आ रहा है कि ये संगठन स्तर की भाजपा नहीं है जिसकी धुरी कभी कठोर अनुशासन का पालन करवाने वाले "कप्तान सिंह सोलंकी" व संगठन व कार्यकर्ताओं को एक सूत्र में बांधें रखने वाले "नरेंद्र सिंह तोमर" थे जो ना केवल स्वयं में अनुशासित थे बल्कि कार्यकर्ताओं को अनुशासित रखना जानते थे। ये दोनों स्वयं में कितने भी कठोर क्यों ना हों लेकिन विपक्षी नेताओं पर अनर्गल टिप्पणी से हमेशा बचे हैं इसका कारण कहीं ना कहीं "राजमाता विजयाराजे सिंधिया जी" व "अटल बिहारी जी" थे जिनके संस्कारी रुपी जल से ही इन्होंने राजनीतिक पोषण प्राप्त किया है।

कार्यकर्ताओं को भी पता है अब भाजपा बदल गयी है जहां विपक्षी नेताओं का "सम्मान" नहीं बल्कि "अपमान" करने वालों को ही पद से नवाजा जायेगा।अतः मध्यप्रदेश में भाजपा को जीवित रखना है तो "ग्वालियर" की भूमिका को तरजीह देनी ही पड़ेगी।