इंदौर में अभ्यास मंडल की 59वीं ग्रीष्मकालीन व्याख्यानमाला

इंदौर। आदिवासियों के विकास के लिए संविधान में कई अधिकारों का जिक्र है, मगर उन्हें आजादी के 70 साल बाद भी संघर्ष करना पड़ रहा है, क्योंकि सरकार ही उनकी तरफ ध्यान नहीं दे रही है। आदिवासी क्षेत्रों की स्थिति में आज भी कोई सुधार नहीं हुआ है। न तो उन्हें पीने का साफ पानी मिल रहा है। न अच्छी शिक्षा के लिए स्कूल और उपचार के लिए अस्पताल है। ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के लिए पैसा नहीं आता है, लेकिन अधिकारियों की उदासीनता और सही दिशा में काम नहीं करने के चलते बजट डूब जाता है।

यह बात सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. हीरालाल अलावा ने शुक्रवार को जाल सभागृह में कही। वे अभ्यास मंडल द्वारा आयोजित 59वीं ग्रीष्मकालीन व्याख्यानमाला में बोल रहे थे। डॉ. अलावा ने कहा कि मप्र, उड़ीसा, झारखंड और छतीसगढ़ जैसे राज्यों में आदिवासी की स्थिति बदतर हो चुकी है। जंगलों व आदिवासी क्षेत्र में पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधन और खनिजों को बचाने में ये लोग संघर्ष कर रहे हैं। मगर उन्हें गलत ढंग से समाज के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। बस्तर जैसे क्षेत्र में आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने में लगे हैं, लेकिन उन्हें नक्सलवादी बताया जा रहा है। सरकार की मंशा भी गलत है। तभी वे ऐसे क्षेत्रों में सेना भेजकर उन्हें खदेड़ रही है, जबकि असल में ये लोग आम जनता के विरोधी नहीं हैं। उन्होंने बताया कि आदिवासी क्षेत्र में जमीन बचाने के लिए पेसा कानून बनाया गया, लेकिन मप्र सरकार इसे लागू नहीं कर रही है। उल्टा सरकार कई योजनाओं के जरिए आदिवासियों से उनकी जमीन छीन रही है। इसके लिए आदिवासी नेता भी काफी हद तक दोषी हैं, क्योंकि पेसा कानून नहीं बनाने पर ये नेता भी कभी विधानसभा में सवाल खड़े नहीं करते हैं। 2011 में गणना हुई थी, जिसमें देशभर में 11 करोड़ आदिवासी हैं। मगर इतने बड़े वर्ग को सरकार नजरअंदाज कर रही है।

कैम्प योजना का नहीं मिल रहा फायदा

डॉ. अलावा ने कहा कि जंगलों में जहां आदिवासी रह रहे हैं, वो भी आज सुरक्षित नहीं है, क्योंकि उनकी अवैध कटाई हो रही है, जिसे रोकने वाला कोई नहीं है। उल्टा वन विभाग भी लकड़ी माफियाओं की मदद कर रहा है, जबकि 80 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी बनाई थी, जिसने पेड़ काटने पर हर्जाने के रूप में रुपए वसूलने की सिफारिश की थी। साथ ही उतनी ही जमीन दूसरे स्थान पर देने की सलाह दी थी। कमेटी के निर्णय के बाद 2016 तक इसके जरिए 40 हजार करोड़ रुपए सरकार के खजाने में आए हैं। इसका इस्तेमाल आदिवासियों के विकास पर होना चाहिए था। मगर राशि को दूसरे रास्ते से सरकार अपनी योजना में लगाती है। दो साल पहले कैम्प योजना के तहत काम करवाए जाने थे, लेकिन वन विभाग भी सिर्फ खानापूर्ति करता है।