हरीश मिश्र - 11 मई, सपनों की दहलीज़ पर राजा और सोनम ने सात फेरे लिए थे। हाथों की मेंहदी की सुगंध अभी सपनों में थी, सोनम की मांग का सिंदूर चमक रहा था। इस नवविवाहित जोड़े ने मां कामाख्या के दर पर शीश नवाया और फिर मेघालय की वादियों में एक प्रणय-यात्रा पर निकल पड़े। उन्हें क्या पता था कि बादलों के घर में ये सपने, कुहासे में हमेशा के लिए खो जाने वाले हैं।
23 मई को शिलांग की ओर रवाना हुए इस जोड़े से 24 मई के बाद संपर्क टूट गया। ना फोन उठे, ना कोई संदेश। चिंता, बेचैनी और फिर भय... परिजनों ने आसमान ज़मीन एक कर दिया। किसी चमत्कार की उम्मीद में भाई, रिश्तेदार दौड़ पड़े—लेकिन जो मिला, वो एक चीखती हुई ख़ामोशी थी। 11 दिन बाद एक गहरी खाई में राजा का सड़ा-गला शव मिला। बारिश में धुलते हुए सपनों की बस यही अंतिम निशानी बची थी। शव ऐसा कि मां भी बेटे का चेहरा नहीं देख सकी। और सोनम ? वो अब भी लापता है।
यह कहानी सिर्फ प्रणय-यात्रा की नहीं है, यह उस भयावह हकीकत की है, जिसमें देश का एक आम नागरिक खुद को असुरक्षित पाता है, यहां तक कि हनीमून जैसे पावन और निजी अवसर पर भी। सवाल सरकार, पुलिस-प्रशासन से है— लापता होने की सूचना के बाद , स्थानीय निगरानी तंत्र सक्रिय क्यों नहीं हुआ ?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मेघालय भारत का ही हिस्सा है और वहां भी भारतीय नागरिकों की सुरक्षा का वही दावा किया जाता है जो दिल्ली, मुंबई या इंदौर में होता है। तो फिर यहां लापता लोगों की खोज सिर्फ परिजनों के भरोसे क्यों ?
शिलांग की उस खाई में सिर्फ एक युवक का शव नहीं पड़ा था, वहां इस व्यवस्था की संवेदनशीलता, उसकी तत्परता और उसके दावों की साख भी गिरी पड़ी थी। एक नवविवाहिता अब भी लापता है। एक मां के आंचल से बेटे की गर्माहट छिन गई है। एक भाई को जवाब चाहिए—और समाज को भी।
हमारे सामने सिर्फ एक दुखद कहानी नहीं है, एक चेतावनी है—कि पर्यटन, आस्था या प्रेम जैसी सबसे सुंदर यात्राएं भी अगर हमारी व्यवस्था की नींद में समर्पित हो जाएं, तो वे लौटती नहीं हैं, न लोग, न विश्वास।
सोनम के राजा को आखिरी विदाई, हर आंख नम हुई, राजा के घर सिर्फ आंसू नहीं हैं, एक इंतज़ार है, सोनम की खबर का, इंसाफ की दस्तक का। और एक सवाल भी है, जो हर मां अपने बेटे को विदा करते वक़्त अब पूछेगी-क्या वह सुरक्षित लौटेगा ?
लेखक ( स्वतंत्र पत्रकार )